अपने भारत देश में आनादी काल से दो विचारधाराऐं मौजूद है ।एक मूल द्रविड़ सभ्यता और द्रविड़ सभ्यता के पच्छात निर्माण कि गई दुसरी वैदिक सभ्यता है ।यह दोनो सभ्यता अलग अलग और एक दुसरे से विपरीत है । फिर भी द्रविड़ सभ्यता को वैदिक सभ्यता से आवश्यक महान कहा जा सकता है ।क्योंकि द्रविड़ लोगोने अपनी सभ्यता को वैदिक सभ्यता से अलग रखा है । जैसे कि आप जानते है वैदिक आर्ये शिकार करते करते पाकिस्तानके खैबर खिंडीसे अपनी मातृभाषा संस्कृत में लिखे कुछ ग्रंथ लेकर घुसे है ।इस बात को लोकमान्य बाल गंगाधर टिलक ने सप्रमाण देकर सिध्द कर दिया है । उनके सिधांतो कहना कहना है कि वैदिक आर्ये युरेशियन है जो आर्टिक प्रदेश में कालासागर के पास है ।हैरान करने वाली बात यह है कि युरेशियन भाषा संस्कृत भाषा से मिलती जुलती है ।ईसीलिये लोकमान्य टिलक के इस सिध्दांत को स्वीकार करना चाहिए ।वैदिक आर्यों का भारत में घुसना याने वह एक भयंकर आक्रमण था ।जो आज हमारे गुलामी का कारण है । इन भयंकर वैदिकोने द्रविड़ सभ्यता पर आक्रमण करके द्रविड़ सभ्यता को तहसनहस कर दिया है । और अपनी भेदभाव वाली संस्कृति भारतीय लोगो पर थोप दि है। भारत कि मूल सभ्यता द्रविड़ सभ्यता है ।ईसीलिये ओ आज भी अपने अलगपण को बरकरार रखने में कमयाब रही है । भारतीय लोगोपर वैदिक आर्योने सभी प्रकार का आक्रमण किया है । चाहे ओ सांस्कृतिक हो आर्थिक हो संपत्तीक हो सामाजिक हो धार्मिक हो राजनैतिक हो या भौगोलिक हो । वैदिक लोगोने द्रविड़ सभ्यता पर आक्रमण करके उस सभ्यता को अपने नाम कर लिया है । क्योंकि वैदिक आर्यों के ग्रंथ में लिखा कुच्छ अलग है और वैदिक लोग करते कुच्छ अलग है । वैदिक आर्यों के ग्रंथ संस्कृत अपनी क्षेत्रीय मातृभाषा में लिखे होने के कारण वह ग्रंथ भारतीय मूल के द्रविड़ लोग समझ नही पाते है । सच बात तो यह है कि वैदिक लोग ना भारतीय है और नाही उनकी संस्कृत भाषा भारतीय है । अगर वैदिक भाषा भारतीय होती थी तो वैदिक और द्रविड़ लोगो में किसी भी प्रकार का भेद नही होता था । लेकिन आपको आज भी भारतीय और वैदिक लोगो में हर प्रकार का भेद देखने को मिलता है । ईसका अर्थ साफ है कि संस्कृत भाषा भेद कि और अग्यान कि जननी है ना कि किसी भाषाओं कि और नाही कोई संस्कृति कि । औ होगी भी तो ओ केवल वैदिक आर्यों कि होगी । वैदिक आर्यों के ग्रंथों का अध्ययन करेंगे तो आप हैरान रह जाओगे । ईस वैदिक संस्कृत भाषा को पढो और समझो ।
उष़्ट्रवर्जि़ता एकतो दतो गोव़्यजमृगा भक्ष्याः
–मनुस्मृति ५/१८ मेधातिथि भाष्य
अर्थात: ऊँट को छोडकर एक ओर दांवालों में गाय, भेड, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात खाने योग्य है
१) गव़्येन दंत श्राध्दे तु संतत्सरमिहोच्यते।।५।।
(अनुशासन पर्व अ८८)
अर्थात्: गौ के मांस से श्राध्द करने पर पितरों कि एक साल कि तृप्ती होती है।
२) सवत्सरं पु गव़्येन पयसा पायसेन च। वाऱ्धीणसस्य मांसेन तृप्तिद़्ववीशं वार्षि़कि।।२७।।(मूस़्मूरर्ति़ अध्याय ३)
अर्थात: गाय बर्धि़का मांस तथा दूध पदार्थ चिजोसे पितरो का तर्पण करने से वह २२ साल तक तृप्त रहते है।
३) संवत्सर गव़्येन प्रीति: भूयासमतो माहीषन।
एतेन ग्राम्यारण्यानां पशूनांमांसं मध्यं।।१६।।
मड्गोपस्तरणे खड्गमांसेनानन्त्यं कालम्।
तथा शतबलेर्मत्स्यस्य मांसेन बाघ्रीणसत्य च।।२५।।
अर्थात: श्राध़्द में गो मांस के साथ सभी प्राणियों के मांस खाने खिलाने से पितरो कि संतुष़्टी हो जाती है।
४) पंचकोटी गवां मांस सापूपं स्वान्नमेव च।।९८।।
एतेषां च नपी राशी भूंजते ब्राम्हणोंन्मूने।९९।।
आर्थात: पाच करोड गायो का मांस व मालपूए ब्राम्हण लोग खा गये। (संदर्भ: हि़ंन्दू धर्म कि सत्यता -लेखक :हरीश़्चंद्र चौधरी) शिकारी वैदिक आर्य मांस भक्षी है। ईस सत्यको जानने के लिये इतिहास संशोधक भारतरत्न डॉक्टर काणे का साहित्य जरूर पढना । उन्होने वैदिक आर्यो के वेद शास्त्र पुरान और स्मृतियों कि पूरी पोल खोल रखी है।
५) न मांस भक्षने दोषो न मद़्य नच मैथुने।
(मनुस्मूर्ति अध्यय ५ श़्लोक ५६)
अर्थात: आपको कोईभी प्रकार का मांस पाप लगता नही है।
६) प्राणात्येय तथा श्राध़्दे प्रोक्षितं व्दिजकाम्यया ।देवान पितृन समभ्यच्य खादमांस न दोषभाक।(याज्ञवल्क्य१ व़्यहाराध्याय) आर्थात : यज्ञ और पि़ंडदान के लिए मारे गये कोईभी प्राणियों का मांस खानेसे कोईभी पाप लगता नही है। ईस सच्चाई को मांस भक्षी शिकारी आर्य क्यों छिपाते है?
८) यज्ञार्थ पशव:सृष़्टा:स्वयंमेद स्वयंभुवा ।
यज्ञस्यमूत्यै सर्वस्य तस्माद़्दज्ञेबधो$वध:।।५-३९।।
ओषध्य:पशवोवक्षास्तिर्यच:पक्षिणस्तया ।
यज्ञार्थ निधन याप्ता:प्राप़्नुवन्त्यूत्सूती:पुन:।।
५-४०(मनुस्मूर्ति)
अर्थात: स्वयं ब्रम्हाने यज्ञ के लिये और सब यज्ञ के और पशूओ कि सम्रूध़्दी के लिये पशूओ का निर्माण किया है। ईसीलिये यज्ञ में पशूओ का वध अही़ंसा है। औषधी ,पशू,वृक्ष,कछुये, और पक्षी ये सब यज्ञ निमीत्त मारे जाने पर भी उत़्तम योवनि में जन्म लेते है।
९) मनुस्मृति १०/१ कहता है । गुरू सिर्फ वैदिक ब्राम़्हन ही बन सकता है। ईसीलिये विद़्यार्जन सिर्फ वैदिक लोगोने ही करनी चाहिये । बाकि सभीने आडानी रहना चाहिए ।
कहने का तात्पर्य यह है कि अगर विदेशी भाषा संस्कृत भारतीय लोगोने सिखी तो शिकारी मांस भक्षी वैदिक आर्यो कि पोल खुल जायेगी । ईसीलिये वैदिक शिकारी मांस भक्षी आर्योने भारतीय लोगो पर शिक्षा पाबंदी लगा दि थी।
१०) ब्रम़्हवैवर्त पूराण
हविष्यमत्स्यामांसैस्तु शशस्य नकुलस्य च।
सौकरच्छागलैणैय रौरवैर्गवयेन च।।१।।
औरभ्रगबरण्यरयैश़्च तथा मांसवृध़्दया पितामहा:।
प्रयान्त तृप़्ति मांसैस़्तु नित्यं ब्राधीणसामिवै:।।२।।
अर्थात: हवन मे छोडे जानेवाली आहुति और द्रव़्य मछली खरगोश, नेवला, सुवर,छाग(बकरा) कस्तुरी मृग ,कृष़्ण मृग ,बन गाय और गाय के मांसो सेपित्रगा एक एक मास अधिक लाभ करते है और गेंड़े के मांस से सदा के लिये तृप़्त रहते है।
११) वशिष़्ठ का मांस खाना
शस्त्रैसे अधपके इन्याम्न्न्नायं समांसे मधुपके
इत्याम्न्नाय बहूमन्यमाना क्षेत्रीयाभ्याश्रोताय
वत्सरी महोक्षं महाजं वा र्निवपन्ति गृहमेधेनी:।
त ह़ि धर्म सूत्रकारा: समाभनन्ति।
(उत़्तर रामचरित्रम चतुर्थ अंक)
अर्थात: मधुपर्क (गोमांस यूक़्त का सूप) मांस यूक़्त होना चाहिए इस वेद वचन का बहुत सम्मान करते हुये गृहस्तगण वेदज्ञ अतिथी के लिये बछिंया और बडा बैल अथवा बडा बकरा भेट करते है। इस वेद वचन को धर्मसुत्रों के रचनेवाले भी अच्छी तरह मानते है।
१२) मांस न खाना नर्क का द़्वार
नियुक़्तस्तु यथान्याय यो मांस नान्तिमानव:।
स प्रोत्शप्रेत्यपशुतायाती सवानेकांसविशती।५/५३
(मनूस्मूर्ति )
अर्थात: शूध़्द और मधुर्पक ऋतथा विधी नियूक़्त होनेवाला जो मनुष़्य मांस नही खाता है ।वह मरने के बाद बाद ईक्कीस जन्मो तक पशू बनता है।
अब आप ही तय करो कि वैदिक शिकारी मांस भक्षी आर्य हम भारतीय लोगो के साथ कैसा छल कपट करहे है। वैदिक शिकारी मांस भक्षी आर्यो के खाने के दात अलग है और हम भारतीय लोगो को दिखाने के दात अलग है।
क्या इस बातसे साबीत नही होता है कि वैदिक शिकारी आर्ये मांस भक्षी है ?(माहाआचार्य मोहन गायकवाड)
Tuesday 29 August 2017
द्रविड़ और वैदिक संस्कृती क्या एक है ?
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