निष्पक्षता सोच के लिये अपने पास योग्य ग्यान होना बहोत जरूरी होता है । लेकिन ईस योग्य ग्यान के लिये बहोत अभ्यास और संशोधन कि जरूर होती है । जो अपनी बूध्दी को सकस और निष्पक्ष बनाते है । पर हम उच्च निच वर्ण और जाती में बंधे होने के कारण हम अपनी निष्पक्षता कि भूमिका निभा नही सकते है । हमें हमारे आर्थिक सामाजिक और धार्मिक हीतो को अबाधित रखने के लिये कोई न कोई पक्ष लेनाही पडता है । और आनन फानन में हम ना आगे कि सोचते है और ना पीछे वाले कि क्योंकि साम दाम दंड और भेद निती का ईस्तेमाल करके अपने विपक्ष में बैठे सारे लोगों को निचा ,कम या हराने के मानसिकता के दृष्टि से हम अपना पक्ष सामने वाले पर थोप देते है ।
डाँक्टर जैसे बिमारी पर सही ईलाज के बिमार व्यक्ति कि सब तरह कि जांच करता है और बिमारी का सही पता लगाता है और अन्त में सही ईलाज करके उस बिमारी को ठीक कराता है ।बस यही फार्मूला हम अपने निष्पक्ष भाव को प्रकट करने के लिये ईस्तेमाल करना चाहिए ताकि एक सच्चा और सामर्थ्यवान समाज का निर्माण हो सके ।पर हम सच्चाई से अभी बहोत दुर है । ईसीलिये हम दुनिया के बहोत पिछे है । क्योंकि हमारे पास शोध वृत्ति हि नही है । हम भेदभाव से ग्रासीत है । और इस ग्रासीकता को ही महान होने का एक ढोंग कर रहे है । पर हम सत्य को ढुंढने कि कोशिश करते है निचे दिया हुवा चौकाने वाला सच हमारे हात लगता है ।
जातिवाद सभ्य समाज के माथे पर एक कलंक है। जिसके कारण मानव मानव के प्रति न केवल असंवेदनशील बन गया है, अपितु शत्रु समान व्यवहार करने लग गया है। समस्त मानव जाति ईश्वर कि संतान है। यह तथ्य जानने के बाद भी छुआ छूत के नाम पर, ऊँच नीच के नाम पर, आपस में भेदभाव करना अज्ञानता का बोधक हउदाहरण के लिए हम धर्म शास्त्रों अथवा संहिता को उद्धृत करेंगे:
'स्नातमश्वम गजमस्तम ऋषभम काममोहितम
शुद्रम क्षरासंयुक्तम दूरता परिवर्जियेम।’
अर्थात: ‘एक घोड़ा जिसे स्नान कराया गया हो, एक हाथी जो तनाव में हो, एक सांढ़ जो काम के वशीभूत हो और एक पढ़ा लिखा शूद्र, इन सभी को करीब नहीं आने दिया जाना चाहिऐ ।
डाँक्टर जैसे बिमारी पर सही ईलाज के बिमार व्यक्ति कि सब तरह कि जांच करता है और बिमारी का सही पता लगाता है और अन्त में सही ईलाज करके उस बिमारी को ठीक कराता है ।बस यही फार्मूला हम अपने निष्पक्ष भाव को प्रकट करने के लिये ईस्तेमाल करना चाहिए ताकि एक सच्चा और सामर्थ्यवान समाज का निर्माण हो सके ।पर हम सच्चाई से अभी बहोत दुर है । ईसीलिये हम दुनिया के बहोत पिछे है । क्योंकि हमारे पास शोध वृत्ति हि नही है । हम भेदभाव से ग्रासीत है । और इस ग्रासीकता को ही महान होने का एक ढोंग कर रहे है । पर हम सत्य को ढुंढने कि कोशिश करते है निचे दिया हुवा चौकाने वाला सच हमारे हात लगता है ।
जातिवाद सभ्य समाज के माथे पर एक कलंक है। जिसके कारण मानव मानव के प्रति न केवल असंवेदनशील बन गया है, अपितु शत्रु समान व्यवहार करने लग गया है। समस्त मानव जाति ईश्वर कि संतान है। यह तथ्य जानने के बाद भी छुआ छूत के नाम पर, ऊँच नीच के नाम पर, आपस में भेदभाव करना अज्ञानता का बोधक हउदाहरण के लिए हम धर्म शास्त्रों अथवा संहिता को उद्धृत करेंगे:
'स्नातमश्वम गजमस्तम ऋषभम काममोहितम
शुद्रम क्षरासंयुक्तम दूरता परिवर्जियेम।’
अर्थात: ‘एक घोड़ा जिसे स्नान कराया गया हो, एक हाथी जो तनाव में हो, एक सांढ़ जो काम के वशीभूत हो और एक पढ़ा लिखा शूद्र, इन सभी को करीब नहीं आने दिया जाना चाहिऐ ।
(वद्धिको, नाथितो, गोपः आशयः कुम्भकारकः।
वणिक किरात कायस्थःमालाकार कुटुम्बिनः।।
बेरटो भेद चाण्डालः दासः स्वपच कोलकः।
एशां सम्भाशणम् स्नानं दर्शनाद वैवीक्षणम्।।)
वणिक किरात कायस्थःमालाकार कुटुम्बिनः।।
बेरटो भेद चाण्डालः दासः स्वपच कोलकः।
एशां सम्भाशणम् स्नानं दर्शनाद वैवीक्षणम्।।)
अर्थात : व्यास स्मृति के अध्याय-1 के श्लोक 11 व 12 में बढ़ई,नाई,गोप (अहीर या यादव) कुम्हार, बनिया, किरात, कायस्थ, माली, कुर्मी, नटकंजर, भंगी, दास व कोल आदि सभी जातियाॅ इतनी नीच है कि इनसे बात करने के बाद सूर्य दर्शन या स्नान करने के बाद ही पवित्र होना कहा गया है।
(गीता, 9/32 पर शंकरभाष्य,गीता प्रैस, गोरखपुर)
:पापा योनिर्येषां ते
पापयोनय:, पापजन्मान:,
के त इत्याह स्त्रियो
वैश्यास्तया शूद्रा:
:पापा योनिर्येषां ते
पापयोनय:, पापजन्मान:,
के त इत्याह स्त्रियो
वैश्यास्तया शूद्रा:
अर्थात : स्त्रियां और शूद्र (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लोग) पापी हैं, पाप की पैदाइश (पापयोनि व पापजन्मा) हैं,
(माहाआचार्य मोहन गायकवाड)
No comments:
Post a Comment