Thursday 7 February 2019

कबीर बाणी

  संत कबिर कि बाणी तो सबको पत्ता है ! पर कबिर कि बाणी का सही अर्थ कोई भी जानते हुये भी बताता नही है ! संत कबिर को सभी अपने धर्म के साथ जोडकर ही प्रस्तुत करते है ! फिर कोई हिन्दो हो या मुस्लिम ! उनके निरपेक्षता को कोई प्रस्तुत नही करता है !
             मानुष जन्म दुलभ है,
                देह न बारम्बार।
          तरवर थे फल झड़ी पड्या,
              बहुरि न लागे डारि॥
अर्थात: मानव जन्म अत्यंत दुर्लभ है ! मानव देह बार बार जन्म नही लेता है ! पेडपर का फल एक बार जमीनपर गिरगया तो उस फल को दोबारा नही लगाया जा सकता है ! वेसा हि मानव देह का है ! एक बार खत्म हुवा तो दोबारा वह जन्म नही ले सकता है !
          "ऊंचे कुल क्या जनमिया
           जे करनी ऊंच न होय।
           सुबरन कलस सुरा भरा
             साधू निन्दै सोय ॥"
अर्थात: उंचे कुल में जन्म लेने से कोई भी व्यक्ती उंचा नही होता है ! उंचे कर्म से हि व्यक्ती उंचा बनता है ! उंचे कुल का एक नशा है ! जो कलश में दारु पिकर सोनेवाले साधु के समान होता है !
          कबीर प्रेम न चक्खिया,
           चक्खि न लिया साव।
             सूने घर का पाहुना,
             ज्यूं आया त्यूं जाव॥
अर्थात: अपने जीवन में जो प्रेम का मैत्री का भाव नही जानता है ! वह  मन के कोई भी भाव को परख नही सकता है ! उसका जीना बेकार है ! जो सुने सुनाये बातोपर विसवास करता है ! वह अग्यानी है ! जैसे अपने घर में मेहमान बनकर आया हुया व्यक्ती जाता है !
           बोली एक अनमोल है,
             जो कोई बोलै जानि,
            हिये तराजू तौलि के,
            तब मुख बाहर आनि।
अर्थात: अपने शब्द अनमोल है ! ग्यानी लोक शब्दो को तोल मोलकर जबान से निकालते है !पर बडबोले लोग बाणी कि किंमत नही समझते है!
           जब मैं था तब हरी नहीं,
             अब हरी है मैं नाही ।
           सब अँधियारा मिट गया
              दीपक देखा माही ।।
अर्थात: जब मै अग्यानी था ,तब मै धार्मिक बनकर ईश्वर कि भक्ती आराधना करता था ! पर अब मै किसी ई्श्वर कि ना भक्ती करता हु ना कोई आराधना ! अब मेरा पुरा अग्यान दुर हुवा है ! क्योंकी अब मै जागृत हो चुका हु ! मै स्वंय प्रकाशीत हो चुका हु ! ईसिलीये मुझे अब किसी भी ईश्वर में रस नही है !
              हरिया जांणे रूखड़ा,
              उस पाणी का नेह।
            सूका काठ न जानई,
             कबहूँ बरसा मेंह॥
अर्थात: जो ग्यानी ग्यान का भुखा होता है ,वह ग्यान के महत्व तो समझता है ! पर जो अग्यानी है वह नायमझ होता है ! जैसे सुखी हुई नदी बारीश के पानी के लिये आतुर होती है वह बारीश के पानी का महत्व जानती है !
        हिन्दू कहें मोहि राम पियारा,
             तुर्क कहें रहमाना,
      आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए,
           मरम न कोउ जाना।
अर्थात: हिन्दो को राम प्यारा है तो , मुसलमान को आल्ला पसंद है ! हिन्दो और मुसलमान ईश्वर के नाम से लढाई करते है ! उनको सत्य पाता ना चलने के वजहसे वह एक दुसरे के शत्रु बने हुये है ! दोनो आपस में लढकर मारते और मरते है !
         कबीर सुता क्या करे,
          जागी न जपे मुरारी ।
          एक दिन तू भी सोवेगा,
            लम्बे पाँव पसारी ।।
अर्थात: तु कितनी भी पत्थरो के भगवान कि भक्ती करले ,आराधना करले ,जाप-तात करले ,पुजा-आर्चा करले चाहे तु दिन-रात ईश्वर ,ईश्वर करता रहे तेरी सारी जिन्दगी चली जायेगी और तु बुढ्ढा बनकर एक दिन ऐसे हि अपने हात-पांव पसारकर मर जायेगा पर तुझे ईश्वर मिलेगा नही ! क्योंकी तेरे में ईश्वर,स्वर्ग कर्मकान्ड नामका अग्यान भरा हुवा है!
          जब गुण को गाहक मिले,
          तब गुण लाख बिकाई।
          जब गुण को गाहक नहीं,
           तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थात: ग्यानी लोग जागृत होने के कारण वह सत्य कि किंमत जावते है ! पर अग्यानी लोग लोभ,मोह और तृष्णा के भवसागर में फसे होने के कारण वह ईश्वर, स्वर्ग और आत्मा के चक्कर में फस जाते है ! ऐसे अग्यानी लोगो को आप कितना भी ग्यान बाटो  उसको ना समझ में आयेगा ना हि उसका ग्यान का मोल सझेगा !
               संत ना छाडै संतई,
           जो कोटिक मिले असंत
              चन्दन भुवंगा बैठिया, 
           तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थात: ग्यानी याने जागृत व्यक्ती कभी भी अपना सत्य का मार्ग  छोडता नही है !चाहे करोड़ो संकट क्यों ना आयेल! ग्यानी व्यक्ती को सत्य मार्ग से विचलीत करनेवाले करोड़ो भ्रष्ट साधु ,संन्यासी क्यों ना मीले उसे विचलीत कोई भी नही करर सकता है ! जैसे चंदन के पेड़पर कितना भी जहरीला सांप क्यों ना बैठे चंदन का पेड़ अपनी शितलता और सुगंध कभी नही बदलता है ! बस  चंदन के पेड़ के समान हि ग्यानी लोग होते है ,जो प्रतिकुल परस्थीती में भी अपने सदगुण को छडते नही है !
        कबीर तन पंछी भया,
       जहां मन तहां उडी जाइ।
         जो जैसी संगती कर,
         सो तैसा ही फल पाइ।
अर्थात: मनुष्य का शरीर बहोत लालची और लोभी होता है ! मन चाहे जहा जाता है और चाहे जो करता है ! पर याद रखना आप जो कर्म करते है उसका फल आपको जरुर मिलता है !अच्छे कर्मो का अच्छा फल मिलता है तो बुरे कर्म का बुरा ! ईश्वर भक्ती में फसा व्यक्ती पपों के पहाड़पर होता है ! वह पाप करता जाता है और पाप धोने के लिये कर्मकान्ड करता है ! कोई कुरबानी देता है तो कोई नदी में डुबकी लगाता है ! कोई माफी मांगता है तो कोई चढावा चढाता है ! ईसिलीये पापी लोग ईश्वर,स्वर्ग और आत्मा के चक्कर में फसकर कर्मकान्ड करते हि जाते है ! जीसे कर नही उसे डर काहे का ? ईसिलीये कबीरजीने भक्ती मार्ग के बजाय कर्म सिध्दांत को अपनाया था ! जीसमें ईश्वर ,स्वर्ग और आत्मा को कोई भी स्थान नही ही !
          कबीर सो धन संचे,
           जो आगे को होय।
         सीस चढ़ाए पोटली,
        ले जात न देख्यो कोय।
अर्थात: आप कितना भी धन संचय कर लो वह आपको दुसरे के लिये हि छोडकर जाना पडता है ! आज तक किसीने भी यह नही देखा है के कमाये हुये धन कि गठडी कोई अपने साथ बांधकर लेकर गया हो ! ईसिलीये कर्म का धन हि सर्वश्रेष्ठ है ! जो खुदके शिवाय किसीका भी नही हो सकता है ! ईसिलीये श्रेष्ठ कर्म करो !
     कबीर बाणी श्रेष्ठ है ! वह निर्पेक्ष है ! इसे किसी धर्म से जोडना निर्पेक्षता का उलंघन है !
(माहाआचार्य)

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